
हिमाचल प्रदेश के गौरव लालचन्द ‘प्रार्थी’ जो ‘चाँद कुल्लुवी’ के नाम से विख्यात हुए वे सांस्कृतिक चेतना के प्रखर संवाहक एवं महान विभूति थे । यह बात आज स्वर्गीय लाल चंद प्रार्थी जयंती के अवसर पर आयोजित कवि गोष्ठी तथा प्रार्थी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर समीक्षा कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत करते हुए जिला लोक संपर्क अधिकारी नरेंद्र शर्मा ने कही । उन्होंने कहा कि लालचन्द ‘प्रार्थी’ दो स्तम्भ ‘लूहरी से लिंघटी तक’ तथा ‘प्रार्थी के खड़प्के’ पाठकों में अत्यधिक लोकप्रिय थे परंतु दुर्भाग्यवश आज उपलब्ध नहीं हैं। कुल्लू जिले के नग्गर गांव में 3 अप्रैल, 1916 को जन्मे लालचन्द ‘प्रार्थी’ उच्च कोटि के साहित्यकार, राजनेता, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी और उर्दू के प्रकांड विद्वान थे , आकर्षक व्यक्तित्व के प्रार्थी अपने धाराप्रवाह भाषण से श्रोताओं को घंटों तक बांधे रखते थे। विधायक और मन्त्री रहे प्रार्थी ने मैट्रिक की शिक्षा स्थानीय स्कूल से लेकर लाहौर से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की जहां वे ‘डोगरा सन्देश’ और ‘कांगड़ा समाचार’ के लिए नियमित रूप से लिख और स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गये। 1940 के दशक में उनका गीत ‘हे भगवान, दो वरदान, काम देश के आऊँ मैं’ बहुत लोकप्रिय था। जो उन्होंने ग्राम्य सुधार पर एक पुस्तक पुस्तक में छपा था। लेखन के साथ ही उनकी प्रतिभा नृत्य और संगीत में भी थी। वे पाँव में घुँघरू बाँधकर हारमोनियम बजाते हुए महफिलों में समां बाँध देते थे। उन्हें शास्त्रीय गीत, संगीत और नृत्य की बारीकियों का अच्छा ज्ञान था। उनके ही प्रयास से हिमाचल प्रदेश में भाषा-संस्कृति विभाग और अकादमी की स्थापना, कुल्लू के प्रसिद्ध दशहरा मेले को अंतरराष्ट्रीय पटल पर पहचान तथा कुल्लू में मुक्ताकाश कला केन्द्र की स्थापना हुई । प्रार्थी जी ने अनेक भाषाओं में साहित्य रचना की ; उर्दू शायरी के उनके काव्य को ‘वजूद ओ अदम’ नाम से उनके देहांत के बाद 1983 में भाषा, कला और संस्कृति अकादमी ने प्रकाशित किया ।
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